शारीरिक शिक्षा के दार्शनिक आधार
दर्शनशास्त्र Philosophy
सामान्य शब्दों में दर्शन ज्ञान के प्रति अनुराग है। दर्शनशास्त्र वह ज्ञान है जो परम् सत्य यथार्थ और सिद्धांतों, और उनके कारणों की विवेचना करता है व सत्य एवं ज्ञान की खोज करता है।
व्यापक अर्थ में दर्शन, तर्कपूर्ण, विधिपूर्वक एवं क्रमबद्ध विचार की कला है जिसके आधार पर व्यक्ति सही व गलत और सकारात्मक व नकारात्मक पक्षों के बीच में अन्तर करता है, और स्वयं का चिंतन, दृष्टिकोण व विचारधारा विकसित करता है।
दर्शन यथार्थ की परख के लिये एक दृष्टिकोण है। वस्तुतः दर्शनशास्त्र स्वत्व, तथा समाज और मानव चिंतन तथा संज्ञान की प्रक्रिया के सामान्य नियमों का विज्ञान है। दर्शनशास्त्र सामाजिक चेतना के रूपों में से एक है।
देश, समय, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार व्यक्ति के दृष्टिकोण और विचारधारा में परिवर्तन संभव है और उसी के आधार पर दर्शन की नई शाखाओं का जन्म होता है।
प्रत्येक व्यक्ति का किसी भी विषय पर अपना निजी मत विचार, अनुभव व दृष्टिकोण हो सकता है अतः प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में एक दार्शनिक है। विभिन्न समय पर विभिन्न स्थानों पर अनेक दार्शनिक हुए हैं जिन्होंने अपने दृष्टिकोण व विचारधारा से समाज को प्रभावित किया है। संसार के भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने समय-समय पर अपने-अपने अनुभवों एवं परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवन-दर्शन को अपनाया।
अरस्तू, प्लेटो, सुकरात, कार्ल मार्क्स, चाणक्य, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी जैसे अनेक लोगों ने अपने चिंतन एवं दर्शन से समाज को प्रभावित किया व समाज को नया रास्ता दिखाया
शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में मुख्य रूप से दर्शनशास्त्र की निम्नलिखित शाखाओं का अध्ययन किया जाता है
- आदर्शवाद Idealism
- प्रयोगवाद Pragmatism
- प्रकृतिवाद Naturalism
- अस्तित्ववाद Existentialism
आदर्शवाद Idealism
विचारवाद या आदर्शवाद उन विचारों और मान्यताओं की समेकित विचारधारा है जिनके अनुसार इस जगत की समस्त वस्तुएं विचार (Idea) या चेतना (Consciousness) की अभिव्यक्ति है। और विचारों का जन्म बुद्धि पर निर्भर करता है अतः आदर्शवाद में बुद्धि एवं विवेक को सर्वोपरि माना गया है।
आदर्शवाद के मुख्य तत्व
- बुद्धि एवं विवेक सर्वोपरि है
- मूल्य एवं आदर्श शाश्वत (स्थाई) होते हैं
- मूल्य एवं आदर्श सर्वोपरि एवं सार्वभौमिक होते हैं
- अध्यापक आदर्श मार्गदर्शक होता है
- अध्यापक को आदर्श गुणों से परिपूर्ण व्यक्ति होना चाहिए
शारीरिक शिक्षा में आदर्शवाद की भूमिका
- शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य व्यक्ति का चारित्रिक एवं व्यक्तित्व का विकास होता है
- तार्किक एवं आंतरिक ज्ञान सत्य तक ले जाने का सही माध्यम है
- पाठ्यक्रम में विषय वस्तु का चयन छात्र में आदर्श गुणों के विकास को दृष्टिगत रखते हुए किया जाना चाहिए
- खेल गतिविधियां केवल शारीरिक क्रिया नहीं अपितु अपने आप में चारित्रिक विकास का शिक्षण माध्यम होना चाहिए।
- खेलों के माध्यम से छात्र में खेल भावना, आत्मविश्वास, नेतृत्व क्षमता, नियमों और संस्थानों के प्रति आदर, सहनशीलता, राष्ट्रप्रेम जैसे आदर्श गुणों का विकास किया जाना चाहिए
- शारीरिक क्षमताओं के विकास से व्यक्ति का व्यक्तित्व निखरता है
- अध्यापक को छात्रों के लिए ऐसा रोल मॉडल (आदर्श पुरुष) होना चाहिए जिसका अनुकरण करने को छात्र प्रेरित हों
- आदर्शवाद में छात्र को स्वयं सिद्ध व आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दिया जाता है
- शारीरिक विकास के साथ-साथ बुद्धि का समेकित विकास करने वाली गतिविधियों का समावेश पाठ्यक्रम में किया जाता है
प्रयोगवाद (Pragmatism)
प्रयोगवाद को प्रयोजनवाद, प्रगतिवाद व पुनर्रचनावाद के नाम से भी जाना जाता है
जॉन डीवी (John Dewy) प्रयोगवाद के सिद्धांत के प्रवर्तक थे ।
प्रयोगवाद व्यवहारिकता के सिद्धांत और समस्या के शीघ्र समाधान पर केंद्रित होता है
प्रयोगवाद के सिद्धांत में तथ्यों का मूल्यांकन उसके व्यवहारिक प्रभाव एवं मानव रुचियों के अनुसार किया जाता है
प्रयोगवाद ( Pragmatism) यूनानी शब्द Pragma से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है समस्या का समाधान
प्रयोगवाद के सिद्धांत के प्रमुख बिंदु
-कोई भी आदर्श अथवा मानक सर्वकालिक और सार्वभौमिक नहीं होता है
-प्रत्येक वस्तु, स्थिति और व्यक्ति परिवर्तनशील होता है -सामाजिक कुशलता का गुण प्राप्त करना आवश्यक है
-तात्कालिक रूप से समस्या का समाधान करना सबसे आवश्यक होता है
-किसी भी परिणाम व निष्कर्ष को अंतिम सत्य या असत्य मान लेना गलत है
-अंतिम सत्ता कुछ नहीं होती है
शारीरिक शिक्षा व खेल में प्रयोगवाद के सिद्धांतों का उपयोग
-निरंतर परिवर्तित हो रहे सामाजिक परिवेश के अनुसार पाठ्यक्रम बनाना
-पाठ्यक्रम को व्यवहारिक उपयोगिता का सिद्धांत पर तैयार किया जाना
- छात्र को आगामी समय की चुनौतियों के लिए तैयार करना
-वर्तमान के साथ व्यवहारिक सामंजस्य स्थापित करना
शारीरिक शिक्षा व खेल की पाठ्यक्रम पर में के निर्माण में प्रयोगवाद के सिद्धांत
-शारीरिक शिक्षा का पाठ्यक्रम छात्र की आवश्यकता के अनुसार तैयार किया जाना चाहिए
-सामाजिक नियम, गुण और शिष्टाचार सिखाने वाली क्रियाएं पाठ्यक्रम में शामिल की जानी चाहिए
-समस्या के समाधान की विधि सिखाने पर जोर होना चाहिए
-शिक्षक स्वयं के बजाए छात्रों को स्वयं कार्य करने के लिए प्रेरित करते करें
-अध्यापक अपने निजी अनुभव व दर्शन के आधार पर पाठ्य सामग्री को लागू करते हैं
-पाठ्यक्रम का प्रभाव छात्र की योग्यता, कार्यकुशलता और रुचि पर निर्भर करता है
-छात्र को विभिन्न प्रकार की गतिविधियों में भाग लेने का मौका दिया जाना चाहिए जिससे वह विभिन्न प्रकार के अनुभवों का संग्रह कर सके
-खेल गतिविधियों के द्वारा सामाजिक उपयोगिता व लोकतांत्रिक गुणों का विकास किया जाना चाहिए
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प्रकृतिवाद
'जीवन प्रकृति के सिद्धांतों से चलता,' है यह प्रकृतिवाद का मूल सिद्धांत है।
प्रकृतिवाद के अनुसार प्रकृति स्वयं में पूर्ण एवं सर्वशक्तिमान है। वर्तमान में जो कुछ भी अस्तित्व में है वह प्रकृति से परे नहीं हो सकता। प्रकृति में कुछ भी नया नहीं है बस उसे खोजा जाता है। सब कुछ प्रकृति में ही उत्पन्न होता है और अंत में प्रकृति में ही विलीन हो जाता है। प्रकृति ही आदर्शों का स्रोत है और प्रकृति के नियम सार्वभौम एवं अपरिवर्तनीय होते हैं।
प्रकृतिवाद के शैक्षिक सिद्धांत
प्रकृति ही मनुष्य की पहली शिक्षक है जो उसे बड़ी सहजता एवं नैसर्गिकता के साथ जीवन की पाठ पढ़ाती है। प्रत्येक जीवधारी के जीवन में आयु के साथ कई शारीरिक एवं मानसिक प्राकृतिक परिवर्तन आवश्यक रूप से आते हैं।
शिक्षा में प्रकृतिवाद का सिद्धांत इसी बात पर आधारित है कि छात्र का शिक्षा कार्यक्रम उसकी जन्मजात मूल प्रवृत्तियों के अनुसार निर्धारित किया जाना चाहिए।
प्रकृतिवाद जटिल व कृत्रिम साधनों की उपयोग को अधिक महत्व नहीं देता। छात्र को यथार्थ का परिचय यथासंभव अवस्था में करा देना चाहिए।
प्रकृतिवाद के अनुसार औपचारिक शिक्षण व्यवस्था के स्थान पर प्राकृतिक व नैसर्गिक वातावरण में बेहतर शिक्षा दी जा सकती है।
छात्र के शरीर व उसकी मानसिक दशाओं में हो रहे प्राकृतिक परिवर्तनों के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्धारण किया जाना चाहिए।
शारीरिक शिक्षा में प्रकृतिवाद के सिद्धांतों की भूमिका
प्रकृतिवाद के अनुसार किसी भी छात्र की विशेष प्रवृत्ति अथवा रुचि श्रद्धा प्रकट हो जाती है उसी को ध्यान में रखकर शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रमों का निर्धारण होना चाहिए।
शारीरिक शिक्षा शिक्षण विधियों में समस्या के समाधान विधि अपनाई जानी चाहिए जिससे छात्र अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल प्रयोग कर सकें।
संपूर्ण पाठ्यक्रम ना केवल शारीरिक पक्ष बल्कि छात्र की नैसर्गिक प्राकृतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर रखकर बनाया जाता है।
खेल गतिविधियां शिक्षा का प्राकृतिक साधन है, क्योंकि खेलों के माध्यम से व्यक्ति की समस्त जन्मजात मूल प्रवृत्तियां प्रकट हो जाती है जिन्हें व्यक्ति अथवा समाज की आवश्यकता के अनुसार परिमार्जित अथवा नियंत्रित किया जा सकता है।
प्रकृतिवाद का सिद्धांत दूसरों से प्रतिस्पर्धा करने के स्थान पर स्वयं से प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देता है
खेलों के माध्यम से छात्र में अंतर्निहित उन क्षमताओं को उभारा जा सकता है जिनके बारे में सामान्य तौर पर वह स्वयं अनभिज्ञ हो, अर्थात छात्र को उसकी मानसिक व शारीरिक क्षमताओं की सीमाओं से परिचित कराया जाता है।
प्रकृतिवाद के सिद्धांतों का पालन करते हुए अधिकाधिक अधिगम के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
Very well explained,
ReplyDeleteThanks for responding
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