Sem 1 पतंजलि योग सूत्र

Unit 1 

पतंजलि योग सूत्र





योगसूत्र, योग दर्शन का मूल ग्रंथ है। जिसकी रचना लगभग 3000 वर्ष पूर्व महर्षि पतंजलि द्वारा की गई। 


विभिन्न प्रकार की योग विधाओं एवं उनकी विधियों का वर्णन भारतीय संस्कृति में पौराणिक काल से ही है जिसमें भगवान शिव महा योगी भी कहा गया है।


परंतु महर्षि पतंजलि द्वारा योग के ज्ञान को लिपिबद्ध एवं व्यवस्थित रुप में संकलित करने के कारण महर्षि पतंजलि योग का जनक कहा जाता है


योग की परिभाषा




महर्षि पतंजलि ने योग को परिभाषित करते लिखा है, "योगश्चित्त वृत्ति निरोध:" अर्थात चित्त की वृत्तियों को रोकना ही योग है 

एवं 

"युज्यते असौ योग:” जो जोड़े वही योग है। अर्थात् आत्मा व परमात्मा को जोड़ना ही योग है।


भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है योग: कर्मसु कौशलम्

अर्थात कर्म करने का कौशल ही योग है


योगसूत्र में चित्त को एकाग्र करके ईश्वर में लीन करने का विधान वर्णित है। 


इसमें 195 सूत्र हैं जो 4 अध्यायों में विभाजित है। पातंजलि ने इस ग्रंथ में भारत में अनंत काल से प्रचलित तपस्या और ध्यान-क्रियाओं का एक स्थान पर संकलन किया और उसका तर्क सम्मत सैद्धांतिक आधार प्रस्तुत किया। 


योगसूत्र के 4 पाद हैं 

समाधी पाद, साधन पाद, विभूति पाद और कैवल्य पाद


1.समाधी पाद - यह पतंजलि योग सूत्र के चार पादों में प्रथम पाद है। इसमें 51 सूत्र हैं। इसके अनुसार मन की वृतियों का निरोध ही योग है।


इसमें मुख्य रूप से समाधि के विभिन्न भेदों व साधनों का वर्णन किया गया है। अतः इसका नाम समाधि पाद है। इस पाद में योग के शुद्धतम स्वरूप, उसके फल, वृत्तियों के प्रकार तथा उनके ठीक ठीक स्वरूप, वैराग्य के भेद,अभ्यास और वैराग्य से वृत्ति निरोध, ईश्वर के सच्चे स्वरूप , योग साधना के मार्ग में आने वाली बाधाओं का विवेचन, जप अनुष्ठान की विधि एवं मनोनिरोध हेतु विविध उपायों का वर्णन, प्रसन्नचित्त रहने के उपाय आदि का वर्णन किया गया है।


2.साधन पाद - 

इस द्वितीय पाद में इसमें 55 सूत्र है प्रारंभिक साधक के लिए योग के साधनों का वर्णन किया गया है अर्थात वे उपाय जिनसे योग मार्ग प्रशस्त होता है। अतः इसका नाम साधन पाद है। इस द्वितीय पाद में क्रिया योग और उसका फल, क्लेश एवं उनका स्वरूप और उनके नाश के उपाय, योग के आठ अंग और उनके फल, प्राणायाम का लक्षण तथा उसके भेद, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान और प्रत्याहार का स्वरूप आदि विषयों का वर्णन है।


3.विभूति पाद - 

इसमें 55 सूत्र हैं। इस अध्याय में संयम का वर्णन है। विभूति का अर्थ यहां पर संयम जनित सिद्धियों से है जो कि योग की अंतरंग अवस्था में जाकर संयम का परिणाम बताई गई हैं। इसमेें योग के आठ अंगों में से अंतिम तीन अंग ध्यान, धारणा और समाधी शामिल हैं।


4.कैवल्य पद - यह अध्याय योग की चरम लक्ष्य कैवल्य (परम मुक्ति) की स्थिति को बताने वाला है। इसमें योग के दार्शनिक स्वरूप का वर्णन है। इसमें 34 सूत्र हैं। परम मुक्ति पर आधारित यह अध्याय सबसे छोटा है।


योग के आठ अंग (अष्टांग योग) 

1.यम, 2.नियम, 3.आसन, 4.प्राणायाम, 5.प्रत्याहार, 6.धारणा, 7.ध्यान, 8.समाधी




1.यम- यम में 5 सामाजिक नैतिकताओं का उल्लेख है।


(i) अहिंसा - अर्थात शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना

(ii) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना

(iii) अस्तेय - अर्थात चोर-प्रवृति का न होना

(iv) ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य के दो अर्थ हैं- चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना और सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना

(v) अपरिग्रह - अर्थात आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना


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2. नियम- नियम के अंतर्गत 5 व्यक्तिगत नैतिकताओं का उल्लेख है

(i) शौच- शरीर और मन की शुद्धि

(ii) संतोष- संतुष्ट और प्रसन्न रहना

(iii) तप- स्वयं से अनुशाषित रहना

(iv) स्वाध्याय- आत्मचिंतन करना

(v) ईश्वर-प्रणिधान- ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण व पूर्ण श्रद्धा 

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3.आसन- आसन शरीर को नियंत्रित एवं साधने की प्रक्रिया है जिसमें शरीर को किसी विशेष मुद्रा (खड़ी, लेटी अथवा बैठी अवस्था में) में रखकर किसी विशेष अंग अथवा तंत्र को प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है।


पतंजलि के योगसूत्र में आसनों के नाम नहीं गिनाए हैं। परंतु कालांतर में अनेक योगियों, ऋषियों, मुनियों ने अनेक आसनों की कल्पना की एवं उन्हें विभिन्न नाम दिए


आसन हठयोग का एक मुख्य घटक है। इसका ‘हठयोगप्रदीपिका’ ‘घेरण्ड संहिता’ तथा ‘योगाशिखोपनिषद’ में विस्तार से वर्णन मिलता है।


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4-प्राणायाम- आसन सिद्धि प्राप्त कर लेने के बाद श्वास और प्रश्वास का नियमन की प्रक्रिया प्राणायाम कहलाता है।

यह नाड़ी साधन एवं उसके जागरण पर केंद्रित होता है 

प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक होता है।

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5-प्रत्याहार- चित्त को चंचल करने वाली इंद्रियों को नियंत्रित एकाग्र एवं अंतर्मुखी रखना प्रत्याहार कहलाता है।

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6-धारणा- धारणा का अर्थ होता है मन को किसी एक बिन्दु अथवा विषय पर पर लगाए रखना, टिकाए रखना एवं एकाग्र चित्त होना। ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

7-ध्यान- ध्यान का अर्थ किसी एक विषय की धारण करके उसमें मन को एकाग्र करना होता है। मानसिक शांति, एकाग्रता, दृढ़ मनोबल, ईश्वर का अनुसंधान, मन को निर्विचार करना, मन पर काबू पाना जैसे कई उद्दयेशों के साथ ध्यान किया जाता है।


पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।

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8-समाधि- समाधि अष्टांग योग की अंतिम अवस्था है। जिसमें साधक ध्येय वस्तु के ध्यान मे पूरी तरह से डूब जाता है और उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता है तो उसे समाधि कहा जाता है। समाधि मोक्ष प्राप्ति का भी साधन है। 











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